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Friday, May 26, 2023

झारखंड की संस्कृति और स्वाभिमान का प्रतीक टुसू पर्व | Tusu Parv

झारखंड की संस्कृति और स्वाभिमान का प्रतीक टुसू पर्व:- भारत देश में मकर संक्रांति का बड़ा ही महत्त्व है। मकर सक्रांति को सूर्य के संक्रमण का त्योहार माना जाता है एक जगह से दूसरी जगह जाने अथवा एक-दूसरे का मिलना ही संक्रांति होती है। सूर्य देव जब धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं तो मकर सक्रांति मनाई जाती है। सूर्य के धनु राशि से मकर राशि पर जाने का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि इस समय सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हो जाता है। उत्तरायण देवताओं का दिन माना जाता है । 

झारखंड राज्य में अनेक तरह के पर्व-त्यौहार मनाया जाते हैं, जिसमें अधिकांश पर्व-त्यौहार प्रकृति से जुड़े हुए होते हैं लेकिन टुसू पर्व का महत्व कुछ और ही है। पांच परगना क्षेत्र का एक प्रचलित कहावत है – “बारह मासे तेरह परब” इसी से जुड़ा हुआ है टुसू पर्व। झारखंड के मूलनिवासी (सदानी) और आदिवासी लोग इस पर्व को बड़ी ही धूमधाम से मनाते हैं। टुसू पर्व को “पुस पर्व” के नाम से भी जाना जाता है। पुस पर्व की शुरुआत अगहन संक्रांति से होती है और मकर सक्रांति में ख़त्म होती है, लेकिन आजकल मेलों की संख्या ज्यादा होने के कारण यह माघ मास तक चलता है।

आज के Article में जानेंगे:-

  • झारखंड की संस्कृति और स्वाभिमान का प्रतीक टुसू पर्व
  • टुसू पर्व की विशेषता
  • टुसू थापना गीत
  • टुसू विसर्जन गीत
  • टुसू की कहानी
  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार टुसू पर्व की कहानी
  • टुसू की स्थापना अगहन संक्रान्ति में ही क्यों किया जाता है?
  • कुंवारी कन्याओं की अहमियत बताता है टुसू पर्व

झारखंड की संस्कृति और स्वाभिमान का प्रतीक टुसू पर्व

पर्व का नामटुसू पर्व / पुस पर्व
मनाने का महिनादिसम्बर-जनवरी
राज्यझारखण्ड-पश्चिम बंगाल
मनाए जाने वाले क्षेत्रपाँच परगना-मानभूम
मुख्य मेलेसती घाट, सूर्य मंदिर, सुईसा मेला, देलघाटार मेला
मुख्य पकवानगुड़ पीठा

झारखंड के रांची जिला के पांच परगना तथा पश्चिम बंगाल के पुरूलिया जिला के मानभूम इलाके में पूरे पुस मास को बड़ी ही धूमधाम, खुशी पूर्वक और उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। इस समय सभी किसान अपने खेतों से धान के फसलों को काटकर और उठाकर अपने घर – खलियान लाते हैं और धान की पिटाई कर धान को और पुआल को अलग-अलग कर लेते हैं। जिससे सभी के घरों में धन – धान्य से भरे होते हैं। यही कारण है कि इस समय यहां के बच्चे – बूढ़े, पुरष – महिलाएं सभी काफी उत्साहित होते हैं।

टुसू पर्व की विशेषता क्या है?

टुसू पर्व लोक संस्कार और संस्कृति का एक अत्यंत मूल्यवान संपदा है। कहीं-कहीं पर टुसू के प्रतीक के रूप में चौड़ल बनाया जाता है। वस्तुत: यह टुसू की पालकी है जो विभिन्न रंगों के कागजों द्वारा पतली – पतली लकड़ियों, सन खाड़ी, बांस की सहायता से भव्य महल का आकार प्रदान किया जाता है। कहीं-कहीं गुड़ियों से भी टुसू को अच्छे से सजाय और बनाया जाता है परंतु स्पर्धावश आजकल बड़े – बड़े एवं कीमती चौड़ल का निर्माण कारीगरी का एक अच्छा नमूना पेश करता है। बहुत सारे मेलों में बड़े और सुंदर चौड़ल के लिए पुरस्कार राशि भी रखा जाता है, जिसके कारण स्पर्धा बढ़ गया है।

झारखंड की संस्कृति और स्वाभिमान का प्रतीक टुसू पर्व | Tusu Parv
झारखंड की संस्कृति और स्वाभिमान का प्रतीक टुसू पर्व | Tusu Parv

पुस पर्व यानि टुसू पर्व अगहन संक्रांति ( दिसम्बर) से शुरू होती है और मकर सक्रांति (जनवरी) में खत्म होती है परंतु आजकल के लोगों के मन में पुस पर्व के प्रति आनंद अधिक बढ़ गया है जिस कारण यह समूचा माघ महीना तक चलता है। इस समय किसान, बच्चे, बूढ़े, महिलाएं आदि काफी खुश होते हैं क्योंकि इस समय प्रत्येक घरों में धन-धान्य भरे होते हैं। 

पुस पर्व को खासकर झारखंड के रांची जिला के पूर्वी क्षेत्र पांच परगना (बुंडू, तमाड़, राहे, सोनाहातु, सिल्ली), रामगढ़, हजारीबाग, बोकारो, धनबाद, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, खूंटी, सरायकेला – खरसावां तथा पश्चिम बंगाल के पुरुलिया, बांकुड़ा, मेदिनीपुर, झालदा तथा उड़ीसा के मयूरभंज, क्योंझर, बनई – बमड़ा, रायरंगपुर, राउरकेला, बारीपदा और असम के कुछ इलाकों में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है।

अगहन संक्रांति के दिन गांव की कुंवारी लड़कियां तथा महिलाएं पूरे समूह में पास के नदी या तालाब में जाकर नहा धोकर बांस के टुपला को फूल – मालाओं से सजाकर और गोबर लाडू़, धूप – धुना, अगरबती, लड्डू, इलाइची दाना, चुउरा आदि का प्रसाद चढ़ाते हैं। गांव के एक निश्चित खाली मकान या फांदा घर में टुसू की थापना/ स्थापना करते हैं। 

टुसू थापना और टुसू थापना गीत

टुसू की थापना में किसी मंत्रोचार का विधान नहीं है। टुसू की पूजा गीत गाकर की जाती है। यह प्रक्रिया महीने भर प्रत्येक शाम ताजे फूल चढ़ाकर दीपक से आरती की जाती है। पुस महीना समाप्त होने से एक दिन पहले खासी चहल-पहल रहती है। इस दिन गुड़ पिठा, तिल भर कर पिठा बनाया जाता है। रात्रि में आठ प्रकार के अनाज यानी आठ कलाई (चावल, गेहूं, मकई, कुरथी, चना, मटर, बादाम, अरहर) भुने जाते हैं और भुजा को टुसू पर चढ़ाया जाता है। लोगों का मानना है कि टुसू को भुजा बहुत पसंद है। 

टुसू थापना गीत

1. हामरा जे मां टुसू थापि, अगहन सांकराइते गो।

   अबला बाछुरेर गोबर, लगन चाउरेर गुड़ी गो।। 

   सइल दिलाम सलिता दिलाम, दिलाम सरगेर बाति गो।

   सकल देवता संइझा ले मां, लखि सरस्वती गो।।

2. अगहन सांकराइते टुसू हांसे – हांसे आबे गो।

    पुसअ सांकराइते टुसू कांदे – कांदे जाबे गो।। 

Tusu Thapna Geet

टुसू विसर्जन की पहली रात को जागरण कहा जाता है। जागरण वाले रात में गांव के सभी लोग एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं और टुसू को चौड़ल (टुसू का पालकी) में बैठाकर उसे गाजे-बाजे के साथ गांव का भ्रमण कराया जाता है। मकर संक्रांति के सुबह जिसमें सभी धर्म, जाति, संस्कृति एवं भाषा के लोग बड़े ही प्रेम भाव, एकता और आत्मीयता के साथ सदल-बल टुसू गीत गाते हुए ढोल, नगाड़ा, धमसा, शहनाई आदि बजाते हुए किसी नदी के किनारे निर्दिष्ट स्थान पर जाते हैं। उस निर्दिष्ट स्थान पर विभिन्न गांवों के लोग अपने चौड़लों के साथ आते हैं, जिससे वहां मेला-सा लग जाता।

टुसू विसर्जन के गीत करुणा भाव से ओत-प्रोत और बड़े ही मार्मिक होते है। टुसू गीतों में नारी जीवन के सुख – दुःख, हर्ष-विवाद, आशा-आकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है। कुछ गीतों में दार्शनिक भाव भी दृष्टिगोचर होते हैं। टुसू पर्व एक संगीत प्रधान त्योहार है। संगीत के बिना इस त्योहार का कोई महत्त्व नहीं है।

टुसू थापना गीत

1. तिरिस दिन जे राखिलाय टुसू, तिरिस बाति दिये गो।

   आर राखिते लारि टुसू, मकर हइलो बादि गो।।

2. तोके टुसू जले दिबोना, आमार पुरा मने बासना।

Tusu Visarjan Geet

यह पर्व मनुष्य को दुःख और पीड़ा से मुक्ति दिलाने वाला पर्व है। आपस की शत्रुता को मिटाकर आपसी तालमेल, प्रेम तथा सदभाव लाने वाला त्योहार है। टुसू पर्व के दिन सभी लोग अपने को उन्मुक्त समझते हैं और पूर्ण स्वाधीनता का अनुभव करते हैं। झारखंड में बसने वाले मूलवासी तथा आदिवासी संप्रदायों के लोग समान रूप से आनंदोल्लास के साथ टुसू पर्व मनाते है। लेकिन बहुत सारे लेखक इसे एक जातीय त्योहार बताया है। 

डॉ. सुकुमार भौमिक इसे सीमांत बंगाल – पूर्वी झारखंड का जातीय त्योहार मानते हैं। उनका मानना है कि टुसू एक कुड़मि (महतो) की अत्यंत रूपवती, गुणवती तथा बलवती कन्या थी। डॉ. सुधीर करण ने अपने एक लेख “टुसू पुराण” में बताया है कि टुसू का असली नाम रुकमणि था। अब यह पर्व कोई जाति या धर्म का नहीं रह कर सार्वजनिक हो गया है। 

टुसू पर्व की प्रचलित कहानियां क्या-क्या हैं?

टुसू पर्व की बहुत सारी किंवदंतियाँ, लोककथाएं ,आधुनिक कहानियाँ आदि लोगों के बीच प्रचलित हैं जो लोगों के बीच कही और सुनी जाती हैं, यहाँ नीचे कुछ कहानियाँ उल्लेखित की गई हैं।

लोककथा के अनुसार टुसू पर्व की पहली कहानी

किंवदंतियों की अनुसार बहुत दिन पहले की बात है पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के काशीपुर गांव में एक गरीब कुड़मि किसान के घर में टुसू की जन्म हुई थी। टुसू जन्म से ही काफी सुन्दर थी, जैसा उसका रूप था उसी तरह उसका गुण भी था। उसके मन में ना तो थोड़ा सा भी घमंड था और ना ही ईर्ष्या थी। यही कारण था कि टुसू को अपने आस-पास के लोग खूब मानने लगे थे। टुसू की खूबसूरती के चर्चा संपूर्ण राज्य में होने लगी थी।  

यह चर्चा तत्कालीन क्रूर राजा के दरबार तक भी जा पहुंचा। राजा ने टुसू को पाने के लिए अनेक तरह से रणनीति बनाई। उस वर्ष राज्य भर में भीषण अकाल और सुखाड़ पड़ा था। उसके राज्य के प्रजा/किसान कर या लगान देने के हालात में नहीं थे। इसका फायदा उठाते हुए क्रुर राजा ने अपनी लगान को दोगुना कर दी और अपने सैनिकों से जबरन कर वसूली शुरू करवा दी। राज्य भर के किसान इससे काफी परेशान थे। 

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क्रुर राजा के आतंक से निपटने के लिए टुसू ने किसानों का एक मजबूत संगठन बनाकर आगे आईं। टुसू को साथ देने के लिए और उसकी इज्जत को बचाने के लिए राज्य भर के मुंडा, मानकी, कुड़मी (महतो), अहीर (यादव), कुम्हार, तेली, साहु, बनिया, कोइरी, घासी, लोहरा, ब्राह्मण, गोसाईं, मांझी आदि जाति के लोगों ने पूरे एकता के साथ लड़ाई शुरू कर दिया। इस तरह से लड़ाई करते – करते पश्चिम दिशा की ओर आने लगे। जहां पर सतीघाट मेला लगता है, उसी जगह में राजा के सैनिकों और किसानों की सेना के बीच घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में हजारों किसान मारे गये। आखिरकर बचे हुए किसानों को हार मानना पड़ा।

अब क्रुर राजा टुसू को अकेला पाकर उसके उसकी इज्जत लूटने के लिए उसके तरफ दौड़ा। उसी समय टुसू अपनी मान-सम्मान, इज्जत और सतित्व बचाने के लिए मां सबरनी  को विनती करके उफनती हुई नदी में कूदकर मां गंगा की गोद में समा गई। इस डूबी हुई जगह को मुंडारी भाषा में “मारांग इकिर” कहते हैं। मरांग का अर्थ होता है “बड़ा” और इकिर का अर्थ “दह” होता है। इसी तरह से मारांगकिरी गांव का नामकरण हुआ। टुसू को नदी में डूबते हुए देखकर आस-पास के लोग भकुआ कर रह गया, इसी कारण से सतिघाट मेला के पास के गांव का नाम भकुआडीह हुआ।

सतीघाट मेला के जिस जगह पर मार-काट हुआ था, उस जगह रक्त से लाल हो गया था। इन जगहों पर अभी भी घास नहीं उगता है और यहां की मिट्टी अभी भी लाल दिखाई देता है। सतीघाट को हम लोग “त्रिवेणी संगम” भी कहते हैं क्योंकि ये राढ़ू, कांची और स्वर्णरेखा नदी का संगम स्थल है । यहां पर पांच परगना और मानभूम के लोग पिंडदान देने के लिए भी आते हैं। 

टुसू मेला/सतीघाट मेला में गाए जाने वाला गीत

1. सतीघाटेर लाल धुरा, उड़िलो धुरा लागिलो चादरे।

   चादर काचिबो जोड़ा साबुने, उड़ुक धुला लागुक चादरे।।

2. एक सड़अपे, दुई सड़अपे, तीन सड़अपे लक चले।

    हामदेर टुसू एकला चोले, बिन बातासे गो डोले।।

Tusu Geet

मकर सक्रांति के दिन ही टुसू स्वर्ण रेखा नदी में डूब कर अपनी इज्जत बचाई थी। टुसू का पर्व उस सहासी युवती की कुर्बानी की याद में मनाया जाता है। इधर के लोग मकर सक्रांति को ही “पुस पर्व या टुसू पर्व” कहते हैं। टुसू की प्रतिमा को नदी में विसर्जन कर एक तरह से उसे श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। पूर्वी झारखंड और बंगाल में इस पर्व की महत्ता का एहसास इसी से हो जाता है कि अधिकांश कार्यालयों और कार्य स्थलों पर लोग अवकाश पर चले जाते हैं। पुस पर्व में सारे कार्यालयों में काम लगभग ठप सा हो जाता है। इन क्षेत्रों में पुस पर्व को बहुत ही उत्साहपूर्वक मनाया जाता है।

लोककथा के अनुसार टुसू पर्व की दूसरी कहानी

टुसू एक राजा की बेटी थी, जो काफ़ी रूपवती, गुणवती और बलवती थी। टुसू की शादी बाॅंड़दा (बरेन्दा) गांव का राजा के पुत्र से शादी हुआ था। टुसू की शादी के कुछ ही दिन बाद उसके पति का मृत्यु हो गया। पहले का नियमानुसार अगर किसी स्त्री के पति का मृत्यु हो जाता था तो उसके जलते हुए चिता में स्त्री को भी कूद कर अपनी जान देना होता था। उसी नियम से टुसू भी अपने पति के जलते हुए चिता में कूद कर जान दे दी। ये सब घटना स्वर्णरेखा नदी के पास हुई थी, जिसके कारण से इस जगह का नाम “सतीघाट” हुआ। इस जगह पर प्रत्येक साल मकर संक्रांति के दुसरे दिन टुसू की याद में सतीघाट मेला लगता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार टुसू पर्व की कहानी

टुसू कोई राजा की बेटी या कोई सुंदर लड़की नहीं थी। हमारे संस्कृति तथा आर्थिक रूप से जो धन है वो है धान यानि धान का ही नाम टुसू है, जिसे हमलोग अन्न के रुप में ग्रहण करते हैं। इसका विश्लेषण से पता चलता है कि पांच परगना क्षेत्र के बूढ़ा – पुरखा लोग कहते हैं – टुसू का अर्थ है अति सुन्दर, सर्वश्रेष्ठ और सबसे ऊंचा। पांच परगना क्षेत्र में एक कहावत भी प्रचालित है – तुम तो आज बिलकुल टूसुमानी जैसा लग रही हो। इसका मतलब हुआ – बहुत सुंदर दिखना। 

रहिन यानी जेठ का महीना में किसान अपने घर में रखा हुआ पुराना धान को एक टोंकी (बांस का टुपला) या कांसा थाल में रखकर उसे अपना खेत ले जाते हैं और धान पूनहा किया जाता है। पांच परगना क्षेत्र में किसान को बाप और धान को बेटी के रूप में माना जाता है। जिस तरह से बाप अपनी बेटी को बहुत ही लालन-पालन और बड़े ही जतन के साथ बड़ा करता है। ठीक उसी तरह एक किसान हर रोज अपने बोए हुए हुए धान (बिहीन धान) को देखने जाता है, कहीं वह ठीक से हो रहा है या नहीं। धीरे-धीरे बिहिन धान अंकुरित होने लगता है और उसे एक महीना के बाद भादर मास के समय खेत में लगाया जाता है। 

मनसा पूजा में पानी के देवता वरुण को आराधना किया जाता है ताकि अच्छा से पानी बरसे और हमारा धान का फसल अच्छा हो। धान को बहुत जतन (ध्यान और रखरखाव) से बड़ा किया जाता है। एक बाप (किसान) अपनी बेटी (धान) को अच्छा से फले – फूले इसीलिए ये सब काम किया जाता है।

टुसू की स्थापना अगहन संक्रान्ति में ही क्यों किया जाता है?

किसान जो भादर मास में धान लगाते हैं तो वो तीन महीना बाद पक जाता है या काटने का समय हो जाता है या फिर बहुत कोई तो काट कर घर भी लाते हैं। जब किसान धान काटकर खेत से अपना खलियान (खरियन) लाता है। तब वो किसान अपना खेत में धान गाछी यानी धान का गुच्छा छोड़कर रखता है, जिसे हमलोग डिनिमाई या जिनीबूढ़ी कहते हैं इसे ही हम लोग लखी मां भी कहते हैं। 

इसी धान गाछी को किसान अगहन संक्रान्ति में पूरे विधि – विधान से अपने घर लाते हैं। जिस तरह से हमलोग अपनी बेटी को ससुराल से घर लाते हैं तब बहुत ही आदर – सत्कार से लाते हैं। ठीक उसी तरह जिनी बूढ़ी को भी लाया जाता है और वही रात में टुसू थापना भी किया जाता है। टुसू थापना में जो कुंवारी लड़की होती हैं वे लोग टुसू की पुरानी सखी होती हैं। टुसू को एक मास तक सेवा तथा पूजा किया जाता है।

टुसू पर्व को संपन्नता का प्रतीक क्यों माना जाता है?

टुसू पर्व कृषकों के घरों में संपन्नता का प्रतिक है, कारण इस समय किसानों के घरों में धन-धान्य से भरे हुए होते हैं। किहीं को खाने-पीने का तकलीफ नहीं होता है। कोई भी व्यक्ति इस समय भूखा नहीं सोता है। सारे लोग खुशीपूर्वक तथा चिंता फिक्र छोड़ कर रहते हैं। 

इस पर्व के साथ कोई सामाजिक परंपराएं जुड़ी हुई हैं, जिसके कारण सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से टुसू पर्व का महत्व है। एक सती स्त्री के रूप में भी टुसू की पूजा-अर्चना की जाती है। यह पर्व पूरे पौष/पुस महीना तक मनाया जाता है और माह के अंतिम दिन यानी मकर सक्रांति के दिन टुसू का विसर्जन किया जाता है।

किसान अपनी खेत-खलियान का कार्य समाप्त करने के बाद इस पर्व को बड़ी ही खुशी पूर्वक मनाया जाता है। पांच परगना और मानभूम के क्षेत्र में इस पर्व को “पुस परब या टुसू परब”  कहा जाता है। इस पर्व पर विशेष रूप से तैयार किए गए पिठा को “पुस पिठा/गुड़ पिठा” कहा जाता है। 

टुसू पर्व में कौन-कौन से व्यंजन और पकवान बनाये जाते हैं?

पुस पर्व पांच परगना के प्रत्येक घरों में गुड़ पिठा/आरसा पिठा, चीनी पिठा, मसला पिठा, खापरा पिठा, फुकरइन, पकौड़ी, आलू चाॅप, गुलगुला, मुढ़ी, तील कुट, खस्सी मांस, देसी मुर्गा, मांस चारपा, छिलका पिठा आदि अनेक तरह के पकवान बनते हैं। मकर पर्व के दिन लोग सुबह में ही नदी, तालाब आदि जगहों में नहा धोकर नया वस्त्र धारण करते हैं और अपने घर में बने हुए भगवान को आराम से धूप में बैठकर खाते हैं।

पांच परगना और मानभूम क्षेत्र में 11 जनवरी को “चावल भिंगा/अरवा चावल धोवन”, 12 जनवरी को “गुंड़ी कुटा”, 13 जनवरी को “बांउड़ी”, 14 जनवरी को “मकर सक्रांति/दही-गुड़-चुउरा”, 15 जनवरी को “आखाइन जातरा” होता है। आखाइन जातरा के दिन हार घुरा, गोबर काटना, बैल का पैर धोना, घर गाड़ी, शादी-ब्याह के लिए वर-कन्या देखा – देखी आदि अनेक शुभ कार्य होते हैं तथा इसके बाद कोई भी शुभ कार्य किए जा सकते हैं। 

आखाइन जातरा के बाद से ही नवीन धान में अगले धान को सृजित करने की शक्ति का प्रवेश भी इसी के बाद आरंभ होता है, जो कि अगली बारिश और मिट्टी का संपर्क पाते ही प्रस्फुटित हो जाती है और मानव कल्याण के साथ-साथ ही समस्त जीव कल्याण में अपना अमूल्य योगदान देती है। 

पुस पर्व या टुसू पर्व को सभी जाति और धर्म के लोग बड़े ही हर्षोल्लास से मनाते हैं। बांउड़ी, मकर और आखाइन जातरा का सुयोग पाकर इस पर्व का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। पांच परगना और मानभूम के इलाके में अगहन मास (दिसंबर) से लेकर माघ मास (फरवरी) तक टुसू मेला इधर-उधर लगते रहते हैं। यहां के हर एक मेले का अलग-अलग खासियत होता है।

कुछ प्रसिद्ध टुसू मेला :- सतीघाट मेला, हरिहर मेला (कोंचो मेला), रामकृष्ण मेला, शिव टांगरा मेला, नीलगिरी मेला, सूर्य मंदिर मेला, हाराडीह – बूढ़ाडीह मेला, देलघाटार मेला, पानला मेला, राजा मेला, हाई टेंशन मेला, मोराबादी मेला, जोबला मेला, हुंडरू मेला, जोन्हा मेला, घुरती सतीघाट मेला, सिरगिटी मेला, बाड़ू मेला, बेनिया टुंगरी मेला, कुलकुली मेला, घोड़ा/पेंड़ाईडीह मेला, लांदुपडीह मेला, झारखंड मेला, ताऊ मेला, साड़ मेला, पागला बाबा मेला, साड़ मेला, जयदा मेला, सुभाष (सुइसा) मेला, मुरी टुंगरी मेला आदि बहुत सारे सारे टुसू मेला लगते हैं।  

टुसू पर्व कुंवारी कन्याओं की अहमियत बताता है।

सू पर्व को नारियों का सम्मान के रूप में भी मनाया जाता है। लगभग माह तक चलने वाला इस पर्व लगभग एक महीना तक चलने वाला है इस पर्व के दौरान कुंवारी कन्याओं की भूमिका सबसे अधिक होती है। कुंवारी कन्याएं टुसू की मूर्ति बनाती हैं और उसकी सेवा-भावना, प्रेम-भावना, शालीनता के साथ पूजा करती हैं। पूजा के दौरान लड़कियां विभिन्न प्रकार के टुसू गीत भी गाते हैं। इसमें कुंवारी लड़कियों की मां, चाची, बुआ, मौसी, भाभी आदि सहयोग करती हैं।

मकर सक्रांति के एक दिन पहले पुरुषों के द्वारा बिना बाजी का मुर्गा लड़ाई यानी मुर्गा उत्सव मनाया जाता है, जिसे “बांउड़ी” कहा जाता है। इस उत्सव से लौटने के उपरांत सारी रात लोग नाचते – गाते – बजाते हैं। फिर अहले सुबह सभी ग्रामीण मकर स्नान के लिए अपने आस-पास के नदी पहुंचते हैं। मकर स्नान के दौरान गंगा माई का नाम लेकर मिठाई – इलायची दाना को अपने पीछे की ओर फेंकता है और उसके पीछे एक लड़का रहता है जो उसको कैच करता है उसके बाद उस प्रसादी को वही खाता है।‌ फिर नहा – धोकर नए वस्त्र पहनते हैं उसके सब अपने – अपने घर आते हैं। फिर अपने घर आकर घर में बने हुए पकवान को बड़े ही चाव से अपने आंगन के धुप में बैठे कर खाते हैं। फिर दोपहर में मांस-भात खाकर सभी कोई गांव के बाहर फोदी खेलने के लिए निकल जाते हैं। फोदी एक तरह का खेल है जो  एक बड़ा डंडा और बांस का बनाया हुआ गेंद (बांस के गांठ को काट कर छोटा गेंद बनाया जाता है) का खेल खेला जाता है।

“टुसू पर्व एक सांस्कृतिक पर्व है ये हमारे संस्कार से जुड़ा हुआ है। हालांकि जो उमंग, उत्साह और उल्लास 17-18 साल पहले था अब वह देखने को नहीं मिलता है। एक तरह से कह सकते हैं कि धीरे-धीरे यह पर्व भी औपचारिकता यानी नाम मात्र भर ही रह गया है।”

Tusu Parv

निष्कर्ष :-

आज के इस आर्टिकल में हमने आपको बताया कि – झारखंड की संस्कृति और स्वाभिमान का प्रतीक टुसू पर्व, टुसू पर्व की विशेषता, टुसू थापना गीत, टुसू विसर्जन गीत, टुसू की कहानी, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार टुसू पर्व की कहानी, टुसू की स्थापना अगहन संक्रान्ति में ही क्यों किया जाता है? तथा कुंवारी कन्याओं की अहमियत बताता है टुसू पर्व आदि अनेक सारी जानकारियां जो आपको जानने लायक हो।

आपको ये जानकारी कैसी लगी हमें Comment करके ज़रूर बताएं तथा अगर कोई सुझाव देना चाहते हैं तो वो भी Comment में लिख कर बताएं ताकि हम उसे सुधार कर इससे और भी बेहतर कर सकें।

लेखक :- हेमंत अहीर

जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय रांची, झारखंड

FAQs

टुसू कौन थी?

टुसू को लेकर दो – तीन तरह के प्रचलित कहानियाँ हैं, जिसमें से एक है – टुसू एक गरीब किसान की बेटी थी, जो अपने राज्य के क्रूर राजा से लड़ाई की और अंत मे स्वर्णरेखा नदी मे कूद कर जान दे दी। दूसरी है – टुसू राजा की बेटी थी जिसका शादी बारेंदा गाँव राजा के पुत्र के साथ शादी हुआ था। उसके पति के आकस्मिक निधन के कारण टुसू भी जलते हुये चीते मे जलकर सती हो गई। तीसरा है – टुसू कोई राजा की बेटी या कोई सुंदर लड़की नहीं थी। हमारे संस्कृति तथा आर्थिक रूप से जो धन है वो है धान यानि धान का ही नाम टुसू है, जिसे हमलोग अन्न के रुप में ग्रहण करते हैं।

टुसू पर्व कब से कब तक मनाया जाता है?

टुसू पर्व अगहन संक्रांति ( दिसम्बर) से शुरू होती है और मकर सक्रांति (जनवरी) में खत्म होती है लेकिन आजकल पूरे माघ महिना तक चलता है।

टुसू पर्व में कौन – कौन मेला लगता है?

सतीघाट मेला, हरिहर मेला (कोंचो मेला), रामकृष्ण मेला, शिव टांगरा मेला, नीलगिरी मेला, सूर्य मंदिर मेला, हाराडीह – बूढ़ाडीह मेला, देलघाटार मेला, पानला मेला, राजा मेला, हाई टेंशन मेला, मोराबादी मेला, जोबला मेला, हुंडरू मेला, जोन्हा मेला, घुरती सतीघाट मेला, सिरगिटी मेला, बाड़ू मेला, बेनिया टुंगरी मेला, कुलकुली मेला, घोड़ा/पेंड़ाईडीह मेला, लांदुपडीह मेला, झारखंड मेला, ताऊ मेला, साड़ मेला, पागला बाबा मेला, साड़ मेला, जयदा मेला, सुभाष (सुइसा) मेला, मुरी टुंगरी मेला आदि बहुत सारे सारे टुसू मेला लगते हैं।  

टुसू गीत कब गया जाता है?

टुसू गीत अगहन मास से माघ मास तक गया जाता है।

टुसू को क्या – क्या चढ़ाया जाता है?

बांस के टुपला को फूल – मालाओं से सजाकर और गोबर लाडू़, धूप – धुना, अगरबती, लड्डू, इलाइची दाना, चुउरा आदि का प्रसाद चढ़ाते हैं।

टुसू पर्व कहाँ – कहाँ मनाया जाता है?

टुसू पर्व खासकर झारखण्ड, पश्चिम बंगाल इलाके में मनाया जाता है।

टुसू पर्व में कौन-कौन से पकवान बनाये जाते हैं?

टुसू पर्व में खासकर गुड़ पीठा बनाया जाता है साथ ही इसके आलावे बहुत तरह के पकवान बनते हैं।

टुसू विसर्जन गीत कैसा होता है?

टुसू विसर्जन के गीत करुणा भाव से ओत-प्रोत और बड़े ही मार्मिक होते है।

टुसू पर्व कैसा पर्व है?

टुसू पर्व एक सांस्कृतिक पर्व है ये हमारे संस्कार से जुड़ा हुआ है। जो उमंग, उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है।

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